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Thursday, May 14, 2015

पत्थर की चट्टानों को चीर कर निकलता है दरिया,
"आह" की भी है खामोशिया,सनम पत्थर दिल से
समंदर से मिलने को बेताब दरिया दौढ़ लगाती ;
मेरी जान की दुश्मन, उठकर चली जाती पास से ,
समंदर मे भी चाँद के आकर्षण से ज्वार- भाटा आता,
ऐसी क्या रुश्बाईयां, वह पर्दा नहीं ह्ठाती खिढ़की से |
पर्दा-नशीं थे नहीं वह, हुश्न की चर्चा सरे बाजार होती है ;
सरेआम उनका जलवा बाज़ नहीं कत्ले-आम मचाने से !
कत्तल भी हो जायें, रजो-गम नहीं, दीदार तो होता है ,
अफ़सोस किसी भी दौर का नहीं, रहे यादें दीदार की महफूज से ;
मेरे दिलवर की शोख़ी,खिलती कलियों की नक्श- पहचान है,
उनकी सादगी कलियों को बख्शा है रहम-ऐ-अदब के तकाज़े से ;
सादगी की यह मूरत, फूलों सी मासूमियत का नाकव पहेने है ;
लरज़ता दिल,रंगीनियाँ छुपी है सीने के अन्दर, मेरे दिलवर से !
वह जहेन में फरेब का नश्तर चलाती ,मासूमियत की सादगी से,
मुहब्बत की सर्द चट्टानों को पिघला कर आग का समंदर बनाने से ;
हक़ीक़त में बियोग कि आग, बर्फ बनके, चोट पर लगा रही मरहम !
जिस्म के अन्दर पिघल रही बर्फ, अश्क बन, बहती रहती है हरदम से |
नफरत न होना बुज़दिली की बात नहीं, न है कोई शिकवा वेबफाई से,
मालूम मुझे खोखली दीवाल पर टीका यह बेरुखी का किल्ला वहम से ,
कितने अर्स काबीज रखेगी वह जिद्द खुद के बेकाबू दिल की धढ़कन पे
हमारी भी जिद्द है,मरते दम तक, यों ही धढ़के-उन के दिल मे यादों से

 सजन

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