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Monday, October 1, 2012

बयां हुश्न का कर..गजल लिखते हैं....




गहरे जुल्फों में उलझ गये,माना था उन्हें सनम ;
नसीब तो देखो, सोचा था, रहेंगे इनके साये मे,

हुश्न का सहेरा समझा; बादल समझ इतराये  ;
हकीकत मे यह मेरे "जलते" दिल का धुंवा था , !

वहम था लब्बों पर फूलों सी अद्दा है, उनकी मुस्कान;
खंजर सी तेज धारवाला, है जख्म देने का औजार !

कातिलाना मुस्कान अधरों मे,हंसी,उनके चहरे पर ,
देख हाल हमारा," खुशी"छुपती नहीं,जल्लादी शान ;

नयन-कमल का भ्रम,गुंजन करता मन भवंरे सा ;
मधुपान को तरसे हम,घुमे इधर से उधर, सारे क्षण,

पंखुढ़ियों मे फँस, अदाओं से बेहाल,हो कर परेशान;
दीवाना बन,काँटों के जखम लिये, अश्क भीगे नयन;

माना उनकी हर बात अच्छी, पर हासिल हमें जख्म है ;
जिगर पे ज़ख्म,दर्द का एहसास, उनकी याद दिलाता है ;

उन्होंने दिये ज़ख्म, तभी तो बयां हुश्न का कर पाते हैं;
लिखे नहीं दो अल्फाज कभी, अब हम गजल लिख पाते हैं !!


सजन कुमार मुरारका

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